बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञानसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर
सम्बन्धकारकः षष्ठी विभक्ति
१. षष्ठी शेषे........
कारकप्रातिपदिकार्थव्यतिरिक्तः स्वस्वामिभावादिसम्बन्धः शेषः तत्र षष्ठी स्यात्। राज्ञः पुरुषः। कर्मादीनामपि सम्बन्धमात्रविवक्षायां षष्ठ्येव। सतां गतम्। सर्पिषो जानीते। मातुः स्मरति। एधोदकस्योपस्कुरुते। भजे शम्भोश्चरणयोः। फलानां तृप्तः।
अथवा
राजः पुरुषः पद की सूत्रोल्लेखपूर्वक सिद्धि कीजिए।
अर्थ - कारक और प्रातिपदिक के अर्थ से भिन्न 'स्वस्वामिभाव' आदि सम्बन्ध को शेष कहते हैं। इस 'शेष' अर्थ में षष्ठी विभक्ति होती है। अर्थात् जहाँ दूसरी विभक्तियों के नियम नहीं लगते वहाँ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है।
उदाहरण - राज्ञ: पुरुष: (राजा का व्यक्ति) में राजा और उसके व्यक्ति का सम्बन्ध है अत: स्वस्वामिभाव सम्बन्ध में 'राजन्' में षष्ठी विभक्ति हुई है। क्योंकि यह सम्बन्ध दूसरे कारक द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकता है अतः यहाँ प्रकृत सूत्र से सम्बन्ध बताने में अप्रधान (गौण) में षष्ठी विभक्ति हुई है।
इसके अतिरिक्त जहाँ कर्म आदि कारकों का साधारण सम्बन्ध प्रकट करना होता है वहाँ भी षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे सतां गतम् (सज्जनों का नाम) सर्विषः जानीते (घी को जानकर प्रवृत्त होता है) मातुः स्मरति (माँ को याद करता है) आदि उदाहरणों में कर्म या करण के सम्बन्ध को बताने के लिए भी षष्ठी विभक्ति हुई है।
२. षष्ठी हेतुप्रयोगे।
हेतुशब्द प्रयोगे हेतौ द्योत्ये षष्ठी स्यात्। अन्नस्य हेतोर्वसति।
अर्थ - वाक्य में 'हेतु' शब्द का प्रयोग होने पर हेतु (कारण) में तथा 'हेतु' शब्द में षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण - अन्नस्य हेतोर्वसति (वह अन्न के कारण रहता है) - जहाँ निवास करने का कारण 'अन्न' है अतः उसमें तथा 'हेतु' शब्द में प्रकृत सूत्र से षष्ठी विभक्ति हुई।
३. सर्वनाम्नः तृतीया च।
सर्वनाम्नो हेतुशब्दस्य च प्रयोगे हेतौ द्योत्ये तृतीया स्थात् षष्ठी च। केन हेतुना वसति। कस्य हेतोः।
अर्थ - यदि 'हेतु' शब्द के साथ किसी सर्वनाम का प्रयोग हो तो 'हेतु' शब्द और सर्वनाम दोनों में ही तृतीया और षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण - केन हेतुना वसति - (वह किस कारण से रहता है?) - यहाँ सर्वनाम 'किम्' तथा 'हेतु' में प्रकृत सूत्र से तृतीया विभक्ति हुई। कस्य हेतोः वसति (वह किस कारण से रहता है?)
४. निमित्तपर्यायप्रयोगे सर्वासां प्रापदर्शनम् (वार्तिक)।
किं निमित्तं वसति, केन निमित्तेन, कस्मै निमित्ताय इत्यादि। एवं किं कारणम् को हेतुः, किं प्रयोजनम् इत्यादि। प्राप ग्रहणादसर्वनाम्नः प्रथमद्वितीये न स्तः। ज्ञानेन निमित्तेन हरिः सेव्यः। ज्ञानाय निमित्ताय इत्यादि।
अर्थ - निमित्त शब्द तथा उसका पर्यायवाची शब्द (कारण, हेतु, प्रयोजन इत्यादि)। प्रयोग करने पर सर्वनाम तथा निमित्त व उसके पर्यायवाची शब्द दोनों में प्रायः सभी विभक्तियाँ होती हैं।
किं निमित्तं केन निमित्तेन, कस्मै निमित्ताय, कस्मात् निमित्तात्, कल्प निमित्तस्य, कस्मिन् निमित्ते वा वसति। इसी प्रकार किं कारणम् केन कारणेन, कस्यै कारणाय इत्यादि। किं प्रयोजनम्, केन प्रयोजनेन, कस्मै प्रयोजनाय इत्यादि। को हेतुः केन हेतुना, कस्मै हेतवे इत्यादि।
वार्तिक में 'प्राय' शब्द के ग्रहण का आशय यह है कि वाक्य में सर्वनाम का प्रयोग न होने पर प्रथमा, द्वितीया नहीं होती, अन्य सभी विभक्तियाँ होती हैं।
उदाहरण - ज्ञानेन निमित्तेन हरिः सेव्यः (ज्ञान के कारण हरि सेव्य है।) इसी प्रकार ज्ञानाय निमित्ताय, ज्ञानात, निमित्तात्, ज्ञानस्य निमितस्य, ज्ञानेन निमित्ते।
५. षष्ठ्यतसर्थप्रत्ययेन।
एतद्योमे षष्ठी स्यात्। 'दिक्शब्द' इति पञ्चम्या अपवादः। ग्रामस्य दक्षिणतः, पुरः पुरस्तात् उपरि। उपरिष्टात्।
अर्थ - अतसुच् प्रत्ययान्त शब्दों तथा इसी अर्थ वाले अन्य प्रत्ययान्त (अस्ताति, आति, आच् तथा आहि प्रत्ययान्त) शब्दों के योग में षष्ठी विभक्ति होती है।
अन्पारादितरतेंदिक्शब्दाञ्चूत्तरपदाजाहियुक्ते सूत्र से 'दिक्शब्दः' के योग में पञ्चमी विभक्ति का विधान किया गया है। यह सूत्र उसका अपवाद है।
उदाहरण - 'ग्रामस्य दक्षिणतः ' (गाँव के दक्षिण) - यहाँ दिक्शब्द 'दक्षिणतः' के योग में ‘अन्यारादि’ ए ग्राम में पञ्चमी विभक्ति प्राप्त होती है किन्तु 'दक्षिणतः' के अतसुच् प्रत्ययान्त होने के कारण उसको बाधित कर प्रकृत सूत्र में षष्ठी विभक्ति होती है।
- ग्रामस्य पुरः (गाँव के पूर्व में) यहाँ पूर्व शब्द से अस्ताति अर्थ में 'असि' प्रत्यय हुआ है। ग्रामस्य पुरस्तात् (गाँव के पूर्व में) - यहाँ पूर्व शब्द से 'अस्ताति' प्रत्यय हुआ है। ग्रामस्य उपरिष्टात् - (गाँव के ऊपर) यहाँ भी ऊर्ध्व शब्द से अस्ताति अर्थ में 'शिष्टातिल्' प्रत्यय हुआ है।
६. एनपा द्वितीया।
एनवन्तेन योगं द्वितीया स्यात्। एनपेति योगविभागात् षष्ठ्यपि। दक्षिणेन ग्रामं ग्रामस्य वा। एवमुन्तरेण।
अर्थ - 'एनप्' प्रत्ययान्त शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। योग विभाग के नियम से इस सूत्र में षष्ठी विभक्ति समझनी चाहिए अर्थात् यह षष्ठी विभक्ति के प्रकरण में है। अतः यहाँ षष्ठी विभक्ति भी होगी।
उदाहरण - दक्षिणेन ग्रामं ग्रामस्य (गाँव से दक्षिण की ओर) में 'दक्षिणेन' पद में एनबन्यतरस्याम् अदूरे उपञ्चम्याः' सूत्र से 'एनप्' प्रत्यय हुआ है, अतः इस 'एनप्' प्रत्ययान्त शब्द के योग में द्वितीया एवं षष्ठी विभक्ति हुई है। इसी प्राकर 'उत्तरेण ग्रामं ग्रामस्य' (गाँव से उत्तर की ओर) में द्वितीया तथा षष्ठी विभक्ति समझनी चाहिए।
७. दूरान्तिकार्थैः षष्ठ्यन्तरस्याम्........
एतैर्योगे षष्ठी स्यात्पञ्चमी च। दूरं निकटं ग्रामस्य ग्रामादा।
अर्थ - दूर तथा अन्तिक अर्थ वाले शब्दों के योग में षष्ठी तथा पञ्चमी विभक्ति होती है।
उदाहरण - दूरं निकटं ग्रामस्य ग्रामाद् वा गाँव के निकट अथवा समीप यहाँ इन और निकट के योग में प्रकृत सूत्र में 'ग्राम' में षष्ठी अथवा पञ्चमी विभक्ति हुई है।
८. ज्ञोऽविदर्थस्य करणे।
जानातेस्ज्ञानार्थस्य करणे शेषत्वेन विवक्षिते षष्ठी स्यात्। सर्पिषो ज्ञानम्।
अर्थ - अज्ञानार्थक ज्ञा धातु के करण कारक में सम्बन्धत्व विवक्षित होने पर षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण - सर्पिषोज्ञानम् - (घी सबन्धी प्रवृत्ति) - यहाँ प्रवृत्ति का साधकतम होने से 'सर्पिः ' करण कारक है, उसमें तृतीया विभक्ति प्राप्त थी किन्तु सम्बन्ध मात्र की विवक्षा में प्रकृत सूत्र से षष्ठी विभक्ति हुई।
९. अधीगर्थदयेशां कर्मणि।
एषां कर्मणि शेषे षष्ठी स्यात्। मातुः स्मरणम् (सर्पिषो दयनम्। ईशनं वा)
अर्थ - अधि उपसर्गपूर्वक इक धातु (अधीक) के अर्थ वाली (अर्थात् स्मरपार्थक) धातुओं तथा दय् और ईश् धातुओं के कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण - मातुः स्मरणम् (माता सम्बन्धी स्मरण) यहाँ स्मरण क्रिया का कर्म है 'मातृ' उसमें द्वितीया प्राप्त भी किन्तु सम्बन्ध मात्र की विवक्षा होने से प्रकृत सूत्र से उसमें षष्ठी विभक्ति हुई।
- सर्पिषोदयनम् (घी सम्बन्धी दान) यहाँ दथ् धातु के कर्म 'सर्पिः' में द्वितीया प्राप्त थी किन्तु सम्बन्ध मात्र विवक्षित होने के कारण प्रकृत सूत्र से षष्ठी विभक्ति हुई।
- सर्पिषरे ईशनम् (घी सम्बन्धी विनियोग) यहाँ ईश् धातु के कर्म 'सर्पिः' में द्वितीया प्राप्त थी किन्तु सम्बन्ध मात्र विवक्षित होने के कारण प्रकृत सूत्र से षष्ठी विभक्ति हुई।
१०. कुञः प्रतिपले।
प्रतिपलो गुणाधानम्। कृञः कर्मणि शेषे स्याद् गुणाधाने। एधोदकस्योपस्कारण्।
अर्थ - प्रतिपल (गुणाधान, परिष्कार अर्थात् एक गुण के स्थान पर दूसरा गुण उत्पन्न कराना) अर्थ में वर्तमान कृ धातु के शेषत्व की विवक्षा में, कर्म कारक में षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण - एथोदकस्य उपकरणम् (ईंधन तथा जल सम्बन्धी दूसरा गुण उत्पन्न करा देना अर्थात् पाककर्त्ता के द्वारा, ईंधन जल तथा अन्य सभी भोजन सामग्री समीप रखकर पाक बनाना) यहाँ कृ धातु का कर्म है। 'एधादक' उसमें द्वितीया प्राप्त भी किन्तु शेष (सम्बन्ध) के रूप में विवक्षित होने के कारण प्रकृत सूत्र से उसमें षष्ठी विभक्ति हुई।
११. रुजार्थानां भाववचनानामज्वरेः।
भावकर्तृकाणां ज्वरिवर्जितानां रुजार्थनां कर्मणि शेष षष्ठी स्यात्। चौरस्य रोगस्य राजा।
अर्थ - 'ज्वरि' धातु को छोड़कर अन्य रुजार्थक (रोग अर्थ वाली) धातुओं के कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है यदि वह धातु भावकर्तृक हो। यहाँ भाववाचक अर्थ भावकर्तृक है यानि भाव का अर्थ हुआ धात्वर्थ तथा वचन का तात्पर्य कर्त्ता से है।
उदाहरण - चौरास्य रोगा राजा (चोर को रोग से कष्ट) में रुज् धातु का अर्थ कष्ट भोगना है वह 'घञ्' प्रत्ययान्त 'रोग' शब्द से कहा गया है तथा रोग शब्द रुजति का कर्त्ता है अतः चोर कर्म में षष्ठी विभक्ति हुई है। 'रोग' शब्द में 'कर्तृकर्मणोः कृति' सूत्र से षष्ठी विभक्ति हुई है। षष्ठी होने से पदों में समाप नहीं होता। (वार्तिक)
१२. अज्वरिसन्ताप्योरिति वाच्यम्।
रोगस्य चौर ज्वरः चौरसन्तापो वा। रोगकर्तृकं चौर सम्बन्धि ज्वरादिकमित्यर्थः।
अर्थ - वार्तिककार कात्यायन के अनुसार उपर्युक्त सूत्र में 'अज्वरेः' के स्थान पर 'अज्वरि सन्तापो:' होना चाहिये अर्थात् जहाँ ज्वर धातु के कर्म में षष्ठी का निषेध किया गया है वहाँ सम्पूर्वक तापि धातु को भी समझना चाहिए। इस प्रकार ज्वर और सन्ताप धातुओं को छोड़कर भावकर्तृक रूज अर्थ वाली धातुओं के कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण - रोगस्य चौरज्वरः वा (रोगकर्तृक चोर सम्बन्धी ज्वर अथवा चोर सम्बन्धी सन्ताप) 'यहाँ 'चौर' कर्म है उसका ज्वर तथा सन्ताप के साथ षष्ठी समास हुआ है।
१३. आशिषि नाभः।
आशीरर्थस्य नापतेः शेषे कर्मणि षष्ठी स्यात्। सर्पिषो नायम्। आशिषि इति किम्? माणक्कनाथनम्। तत्सम्बन्धिनी याच्जेत्यर्थः।
अर्थ - आशीर्वचन अर्थ में 'नाथ' धातु के कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। यहाँ 'आशी:' का अर्थ इच्छा है।
उदाहरण - सर्पिषः नाथनम् (घी की इच्छा करना) में 'नाथ' धातु के कर्म (सर्पिष) में षष्ठी विभक्ति हुई। सूत्र में 'आशिषि' शब्द का ग्रहण क्यों किया है? इसका उत्तर यह है कि यदि 'नाथ' धातु इच्छा करने के अर्थ में नहीं होगी तो प्रकृत सूत्र में षष्ठी विभक्ति नहीं होगी। जैसे- माणवकनाथनम् ( माणवक बालक से प्रार्थना) में 'नाथ' धातु इच्छा करना अर्थ में प्रयुक्त न होकर याञ्चा (माँगने) के अर्थ में आयी हैं अतः नाथ धातु के कर्म (माणवक) में षष्ठी विभक्ति नहीं हुई है।
१४. जासिनिप्रहणनाटक्राथपिषां हिंसायाम्।
हिंसार्थानामेषां शेषे कर्मणि षष्ठी स्यात्। चौरस्योज्जासनम्। निप्रौ संहतौ विपर्यस्तौ व्यस्तौ वा। चौरस्य निप्रहरणम् प्रणिहननम् निहननम् प्रहणनं वा। नट अवस्कन्दने चुरादिः। चौरस्योन्नाटकम्। चौरस्य क्राथनम्। वृषलस्य पेषणम् हिंसायाम् किम्? धानापेषणम्।
अर्थ - हिंसार्थक जस् (णिजन्त) नि प्र पूर्वक हन्, नट् (णिजन्त), क्रांथ (णिजन्त) तथा पिष् धातुओं के कर्म कारक में शेषत्व की विवक्षा में षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण - चौरस्य उज्जासनम् (चोर का मारना) में 'जसु ताड़ने' चुरादिगण की हिंसा अर्थ वाली धातु का प्रयोग हुआ है उसके कर्म (चोर) में यहाँ षष्ठी विभक्ति हुई। इसी प्रकार 'चौरस्य निप्रहरणनम्' (चोर का मारना), चौरस्य उन्नाटनम् (चोर का मारना), चोरस्य क्राथनम् (चोर का मारना) वृषलस्य पेषणम् (शूद्र का मारना) आदि उदाहरणों में हिंस अर्थ वाली विभिन्न धातुओं के योग में उनके कर्म में षष्ठी विभक्ति जननी चाहिए।
सूत्र में 'हिंसायाम्' करने का क्या उद्देश्य है? इसके उत्तर में कहा गया है कि उपरोक्त सभी धातुएँ जब हिंसा के अर्थ में होगी तभी उनके कर्म में षष्ठी विभक्ति होगी। हिंसा अर्थ न होने पर प्रकृत सूत्र से षष्ठी विभक्ति नहीं होगी। जैसे- धानपेषणनम् (धान का पीसना) में 'पिष्' धातु का प्रयोग हिंसा के अर्थ में नहीं हुआ है अतः यहाँ धातु के कर्म धान में षष्ठी विभक्ति नहीं हुई।
१५. व्यवहृपणोः समर्थयोः।
शेषे कर्मणि षष्ठी स्यात्। द्यूते क्रय विक्रय व्यवहारे चातयोस्तुल्यार्थता। शतस्य व्यवहरणं पणनां वा। समर्थयोः किम्। शलाकाव्यवहारः। गणनेत्पर्थः। ब्राह्मणपणनं स्तुतिरित्यर्थः।
अर्थ - वि अव उपसर्ग पूर्वक 'हृ' तथा 'पण' इन समानार्थक धातुओं के कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। द्यूतक्रीड़ा और क्रयविक्रय व्यवहार इन अर्थों में समानार्थता है।
उदाहरण - शतस्य व्यवहरणम् (सौ रुपये का जुआ या क्रय-विक्रय) में वि अब उपसर्ग पूर्वक 'ह' धातु का प्रयोग द्यूत और क्रय विक्रय के अर्थ में हुआ है अतः इसके कर्म 'शत' में षष्ठी विभक्ति हुई है। इसी प्रकार 'शतस्य पणनम्' (सौ रुपये का जुआ या क्रय-विक्रय) में 'पण' धातु के कर्म में प्रकृत सूत्र से षष्ठी विभक्ति हुई है।
सूत्र में 'समर्थयो:' ऐसा क्यों पढ़ा गया है? इसका समाधान यह है कि वि अब पूर्वक 'हृ' एवं 'पण्' धातुएँ जब जुआ या विक्रय-विक्रय अर्थ में हो तभी यहाँ षष्ठी विभक्ति होगी अन्यथा नहीं। जैसे- शलाकाव्यवहारः (शलाकाओं की गणना) में वि अब पूर्वक 'ह' धातु गणना अर्थ में तथा 'ब्राह्मणपणनम्' (ब्राह्मण की स्तुति) यण् धातु स्तुति करने के अर्थ में प्रयुक्त हुई है। अतः इन धातुओं के प्रयोग में इनके कर्म में षष्ठी विभक्ति नहीं हुई है।
१६. दिवस्तदर्थस्य।
द्यूतार्थस्य क्रयविक्रयरूपव्यवहारार्थस्य च दिवः कर्मणि षष्ठी स्यात्। शतस्य दीव्यति। तदर्थस्य किम्? ब्राह्मणं दीव्यति। स्तौतीत्यर्थः।
अर्थ - द्यूत अर्थ वाली या क्रय-विक्रय वाली, 'दिव्' धातु के कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण - शतस्य दीव्यति (सौ रुपये का जुआ खेलता है) में 'दिव्' धातु के जुआ खेलने या क्रय-विक्रय के अर्थ में होने के कारण उसके कर्म (शत्) में प्रकृत सूत्र से षष्ठी विभक्ति हुई है।
सूत्र में 'तदर्थस्य' क्यों ग्रहण किया गया है? इसके अन्तर में कहा जा सकता है कि यदि दिव् खेलना या क्रय-विक्रय अर्थ में होगी तभी उसके कर्म में षष्ठी विभक्ति होगी अन्यथा नहीं। जैसे - ब्राह्मणं दीव्यति (ब्राह्मण की स्तुति करता है) में दिव् धातु का अर्थ स्तुति करना होने से कर्म (ब्राह्मण) में षष्ठी विभक्ति नहीं हुई।
१७. विभाषोपसर्गे।
पूर्वयोगापवादः। शतस्य शतं वा प्रतिदीव्यति।
अर्थ - द्यूतार्थक अथवा क्रय-विक्रय रूप व्यवहारार्थक दिव् धातु के उपसर्ग युक्त होने पर कर्म में विकल्प से षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण - शतस्य शतं वा प्रतिदीव्यति - (वह द्यूतक्रीड़ा में सौ जीतता है अथवा क्रय-विक्रय व्यवहार में सौ लेता है) - यहाँ प्रति उपसर्ग पूर्वक दिव् धातु के कर्म 'शत्' में प्रकृत सूत्र से विकल्प से षष्ठी विभक्ति हुई। पक्ष में द्वितीया विभक्ति हुई। यह सूत्र पूर्वयोग का अपवाद है।
१८. प्रेष्यब्रुवोर्हविषो देवतासम्प्रदाने।
देवतासम्प्रदानेऽर्थे वर्तमानयोः प्रेष्यनुवोः कर्मणेर्हविषो वाचकाच्छब्दात् षष्ठी स्यात्। अग्नये
छागस्य हविषो वपापा मेदसः प्रेष्य अनुब्रूहि वा।
अर्थ - देवताओं को उद्देश्य का दान अर्थ में 'प्रेष्य' एवं 'ब्रू' धातु के हवि रूप कर्म के वाचक शब्द से षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण - अग्नेय छागस्य हविष: वपापा: मेदसः प्रेष्य (अग्नि को बलि रूप में बकरा, हविस् वया और मेदा दो) में 'प्रेष्य' धातु का प्रयोग हुआ है अतः अग्निदेव को दिये जाने के कारण इसके कर्म छाग, हविस् आदि में षष्ठी विभक्ति हुई है। इसी प्रकार 'अग्नये छागस्य हविष: वपाया मेदासोऽनुब्रूहि' में भी 'ब्रू' धातु के कर्म में प्रकृत सूत्र से षष्ठी विभक्ति समझनी चाहिए।
१९. कृत्वोऽर्थप्रयोगे कालेऽधिकरणे।
कृत्वोऽर्थानां प्रयोगे कालवाचिन्यधिकरणे शेषे षष्ठी स्यात्। पञ्चकृत्योऽहनो भोजनम्। शेषे किम्? द्विरहन्यध्ययनम्।
अर्थ - कृत्वसुच् और इसके समानार्थ प्रत्ययान्त (बार-बार अर्थ प्रकट करने वाले) पदों के योग में कालवाचक अधिकरण कारके में शेषत्व की विवक्षा में, षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण - पञ्चकृत्वः अह्न भोजनम् - (एक दिन में पाँच बार भोजन) में 'कृत्वसुच्' प्रत्यय के साथ 'पञ्च शब्द' का प्रयोग हुआ है अतः उसके अधिकरण (अहन्) में षष्ठी विभक्ति हुई है। इसी प्रकार द्विरहः भोजनम् (दिन में दो बार भोजन) में 'द्विः' शब्द में 'सुच्' प्रत्यय है जो 'कृत्वसुच्' के अर्थ वाला है अतः कालवाची अधिकरण 'अहन्' में षष्ठी विभक्ति हुई है।
सूत्र में शेष की विवक्षा क्यों की गई है? इसका समाधान यह है कि शेष की विवक्षा होने पर ही यह नियम लगेगा अन्यथा अधिकरण में सप्तमी विभक्ति ही होगी। जैसे- द्विरहनि अध्ययनम् (दो दिन में अध्ययन) में 'शेष' की विवक्षा न होने पर प्रकृत सूत्र से षष्ठी विभक्ति न होकर अधिकरण में सप्तमी विभक्ति हुई है।
२०. कर्तकर्मणोः कृति।
कृद्योगे कर्तरि कर्मणि च षष्ठी स्यात्। जगतः कर्ता कृष्णः।
अर्थ - वृत्प्रत्ययान्त (कृदन्त) सम्बन्धी कर्ता और कर्म कारक में षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण - कृष्णस्य कृतिः (कृष्ण की रचना) यहाँ कृत् प्रत्ययान्त 'कृति' (कृ + क्तिन्) के कर्त्ता कारक 'कृष्ण' में प्रकृत सूत्र से षष्ठी विभक्ति हुई है। इसी प्रकार 'जगत कर्ता कृष्ण:' (जगत का कर्त्ता कृष्ण है) में कर्ता शब्द तृच् प्रत्ययान्त शब्द है अतः इसके प्रयोग में कर्म (जगत्) में षष्ठी विभक्ति हुई है।
२१. गुणकर्मणि वेष्यते (वार्तिक)।
नेता अश्वस्य स्रुहनस्य स्रुद्धं वा। कृति किम् - तद्धिते मा भूत्, कृतपूर्वी कटम्।
अर्थ - कृदन्त के योग में गौण कर्म कारक में षष्ठी विभक्ति विकल्प से होती है।
उदाहरण - नेता अश्वस्य सुहवस्य सुह्वं वा (घोड़े को सुघ्न देश में ले जाने वाला) - यहाँ 'स्रुघ्न' का अधिकरणत्व अविवक्षित है। अतएव अकथित होने के कारण गौण कर्म है। इसलिए कृदन्त 'नेता' (नी + तृच्) के योग में प्रकृत वार्तिक से उसमें विकल्प से षष्ठी विभक्ति हुई। पक्ष में 'कर्मणि द्वितीया' से द्वितीया विभक्ति भी हुई। 'अश्व' प्रधान कर्म है अतएव उपर्युक्त सूत्र से उसमें षष्ठी विभक्ति हुई है।
सूत्र में 'कृति' का प्रयोग क्यों? क्योंकि कृत् प्रत्ययान्त पद के योग में ही कर्त्ता और कर्म में षष्ठी होती हैं, तद्धित प्रत्ययान्त पद के योग में नहीं। यथा कृतपूर्वी करम् (जिसमें 'चटाई' को पहले बनाया हो) - यहाँ 'कृतपूर्वी' इस समस्त पद का पूर्व पद 'कृत' (कृ + क्त) कृदन्त है और उत्तर पद 'पूर्वी' (पूर्व + इनि) तद्वितान्त है। अतः कृत प्रत्ययान्त का योग होने पर भी तद्धित प्रत्ययान्त पद के करण कर्म कारक 'कट' में षष्ठी विभक्ति नहीं हुई।
२२. उभय प्राप्तौ कर्मणि।
उभयोः प्राप्तिर्यस्मिन्कृति तत्र कर्मण्येव षष्ठी स्यात्। आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपेन।
अर्थ - यदि कृदन्त के योग में कर्त्ता और कर्म दोनों में षष्ठी विभक्ति प्राप्त हो तो केवल कर्म कारक में ही षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण - आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपेन (जो ग्वाला नहीं है उसके द्वारा गायों का दुहना आश्चर्य है) - यहाँ कृदन्त 'दोह:' (दुह् + घञ्) के योग में पूर्व सूत्र से कर्त्ता 'अगोप' तथा कर्म 'गो' में षष्ठी प्राप्त थी किन्तु प्रकृत सूत्र से कर्म में षष्ठी का नियमन हो जाने से 'कर्म गो' में षष्ठी विभक्ति हुई। कर्त्ता अग्नेय के अनुक्त होने के कारण उसमें तृतीया विभक्ति हुई।
२३. स्त्री प्रत्ययमोरकाकारयोर्नायं।
भेदिका विभित्सा वा रुद्रस्य जगतः।
अर्थ - 'अक्' तथा 'अ' स्त्री प्रत्ययान्त कृदन्त के योग में यह नियम (कर्म में ही षष्ठी) नहीं लगता अर्थात् अक् प्रत्ययान्त और अप्रत्ययान्त स्त्रीलिंग वाची कृदन्त के योग में कर्त्ता और कर्म कारण दोनों में षष्ठी विभक्ति हो सकती है।
उदाहरण - भेदिका विभित्सा वा रुद्रस्य जगत: (रुद्र के द्वारा जगत् का नाश या नाश करने की इच्छा) यहाँ अक् प्रत्ययान्त स्त्रीलिंग वाची कृदन्त 'भेदिका' (भिद् + सन् + अ + टाप्) के योग में कर्त्ता 'रुद्र' तथा कर्म ‘जगत्' - दोनों में प्रकृत वार्तिक दोनों में प्रकृत वार्तिक से षष्ठी विभक्ति हुई।
२४. शेष विभाषा।
स्त्रीप्रत्यये इत्येके। विचित्रा जगतः कृतिहरेः हरिणा वा। केचिदविशेषेण विभाषामिच्छन्ति। शब्दानामनुशासनमाचार्येण आचार्यस्य वा।
अर्थ - शेष (अक् तथा अ प्रत्यय से भिन्न) कृदन्त स्त्री प्रत्ययान्त के योग में कर्त्ता विकल्प से षष्ठी विभक्ति होती है।
यह प्राप्त विभाषा है क्योंकि शेष स्त्री प्रत्यय के योग में किसी भी सूत्र से कर्त्ता में षष्ठी प्राप्त नहीं है। प्रत्युत् 'उभयप्राप्तौ कर्मणि' से कर्म में षष्ठी का नियमन होने से कर्त्ता में षष्ठी का निषेध तो है।
उदाहरण - विचित्रा जगतः कृतिहरे : हरिणा वा (हरि के द्वारा जगत् की सृष्टि विचित्र है) यहाँ स्त्रीलिंग वाची कृदन्त 'कृति' (कृ + क्तिन्) के योग में कर्ता कारक 'हरि' में विकल्प से षष्ठी विभक्ति हुई। पक्ष में अनुक्त कर्त्ता होने के कारण तृतीया विभक्ति हुई।
२५. क्तस्य च वर्तमाने।
वर्तमानार्थस्य क्तस्य योगे षष्ठी स्वात्। 'न लोकः' निषेधस्थापवादः। राज्ञां मतो बुद्धः पूजितो
अर्थ - जब क्तप्रत्ययान्त पद (जो भूतकाल का वाचक है) वर्तमान काल के अर्थ में प्रयुक्त होता है तब उसके योग में षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण - राज्ञां मतो बुद्धः पूजितो वा (राजा चाहते हैं, जानते हैं अथवा पूजते हैं) - यहाँ 'मति बुद्धिपूजार्थभ्यश्च' सूत्र से वर्तमान अर्थ में मन् बुध् तथा पूज् धातुओं से क्त प्रत्यय हुआ है। अतः कर्त्ता कारक 'राजन्' में प्रकृत सूत्र से षष्ठी विभक्ति हुई।
२६. अधिकरणवाचिनश्च।
क्तस्य योगे षष्ठी स्यात्। इदमेषामासितं शयितं गतं भुक्तं वा।
अर्थ - अधिकरणवाची क्त प्रत्यय (प्रत्ययान्त) के योग में कर्त्ता कारक में षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण - इदम् एषां शयितम् (यह इनकी शय्या है) - यहाँ 'शेते अस्मिन् इति शयितम्' इस अधिकरण अर्थ में अकर्मकभी धातु से क्त प्रत्यय हुआ है। अतएव कर्ता 'एतद्' में प्रकृत सूत्र से षष्ठी विभक्ति हुई है।
- इदम् एषाम् आसितम् (यह इनका आसन हैं) - यहाँ 'आस्यते अस्मिन् इति आसितम्' इस अधिकरण अर्थ में अकर्मक आस् धातु से क्त प्रत्यय हुआ है। अतएव कर्त्ता कारक 'एतद्' में प्रकृत सूत्र से षष्ठी विभक्ति हुई है।
-इदम् एषां गतम् (यह इसका गमन मार्ग है) यहाँ गच्छति अस्मिन् इति गतम्' इस अधिकरण अर्थ में गम् धातु से क्त प्रत्यय हुआ है। अतएव कर्त्ता कारक 'एतद्' में षष्ठी विभक्ति हुई है।
- इदम् एषां भुक्तम् (यह इनका भोजन पात्र है) - यहाँ भुङ्क्ते अस्मिन् इति 'भुक्तम्' इस अधिकरण अर्थ में भुज् धातु से क्त प्रत्यय हुआ है। अतएव कर्ता कारण एतद् में प्रकृत सूत्र से षष्ठी विभक्ति हुई हैं।
२७. व लोकाव्यनिष्ठा खलर्थतृनाम्।
एषां प्रयोगे षष्णि न स्यात्। लादेश- कुर्वन् कुर्वाणो वा सृष्टि हरिः। उ-हरिं दिदृक्षुः अलंङ्गरिष्वणर्वा। उक - दैत्यान्धातुको हरिः।
अर्थ - ल (अर्थात् लकार के स्थान में होने वाले शतृ, शानच्, कानच्, क्वसु, कि किन् आदि आदेश) उ प्रत्यय (उ प्रत्यय और उकारान्त प्रत्यय) उक प्रत्यय् अव्ययम् निष्ण प्रत्यय (क्त और क्तवतु) खत् तथा खल् के अर्थ वाले प्रत्यय, तृन् प्रत्याहार के अन्तर्गत आने वाले (शतृ, शानम्, चानश्, शतृ, तृन् प्रत्यय प्रत्ययान्त पदों के योग में कर्ता और कर्म कारक में षष्ठी विभक्ति नहीं होती।
उदाहरण - कुर्वन् कुर्वाणो वा सृष्टि हरिः (सृष्टि रचना करते हुए हरि) - यहाँ लकार के स्थान पर होने वाले शतृ प्रत्यय से अन्त होने वाले 'कुर्वन्' (कृ + शतृ) तथा शानच् प्रत्यय में अन्त वाले 'कुर्वाणः' (कृ + शानच्) कृदन्त के योग में प्रकृत सूत्र से कर्म 'सृष्टि' में षष्ठी का निषेध हो गया। अतएव कर्मणि द्वितीया से उसमें द्वितीया विभक्ति हुई।
हरिदिदृक्षुः अलंकरिष्णुर्वा (हरि को देखने का इच्छुक अथवा अलंकृत करने का इच्छुक)- यहाँ उ प्रत्त्ययान्त 'दिदृक्षुः' (दृश् + सन् + उ) अथवा उकारान्त प्रत्ययान्त 'अलंकरिष्णुः' कृदन्त के योग में प्रकृत सूत्र से 'कर्म हरि' में षष्ठी विभक्ति नहीं हुई। अतएव अनुवत कर्म होने के कारण उसमें 'कर्मणि द्वितीया' से द्वितीया विभक्ति हुई।
२८. कमेरनिषेधः (वार्तिक)।
अर्थ - उक प्रत्ययान्त कम् धातु के प्रयोग में कर्म कारक में षष्ठी का निषेध नहीं होता अर्थात् षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण - 'लक्ष्म्या : कामुको हरि: (लक्ष्मी के इच्छुक हरि) - यहाँ उक प्रत्ययान्त 'कामुकः ' कृदन्त के योग में प्रकृत वार्तिक से षष्ठी का निषेध न होने के कारण 'कर्तृकर्मणोः कृति' से उसमें षष्ठी विभक्ति हो जाती है।
२९. द्विषः चतुर्वा (वार्तिक)।
मुरस्य मुरं वा द्विषन्। सर्वोऽयं कारक षष्ठ्याः प्रतिषेधः। शेषे षष्ठी स्यादेव। ब्राह्मणस्य कुर्वन। नरकस्य विष्णुः।
अर्थ - द्विष् धातु से शतृ प्रत्यय होने पर कर्म कारक में षष्ठी विभक्ति का निषेध विकल्प से होता है।
उदाहरण - मुरस्य मुरं वा द्विषन् (मुर नामक राक्षस का शत्रु) - यहाँ 'द्विषोऽमित्रे' सूत्र से अमित्र अर्थ में द्विष् धातु से तृन् प्रत्याहारान्तर्गत शतृ प्रत्यय हुआ है। अतएव इस कृदन्त के योग में कर्म 'मुर' में प्रकृत वार्तिक से विकल्प से षष्ठी का निषेध हुआ। अनभिहित होने से उसमें द्वितीया हुई और पक्ष में षष्ठी विभक्ति हुई।
३०. अनेकोभविष्यदाधमर्ण्ययोः।
भविष्यत्यकरस्य भविष्पदाधमण्यर्थिनच योगे षष्ठी न स्यात्। सतः पालोऽवतरति ब्रजं गामी। शतंदायी।
अर्थ - भविष्यत् अर्थ में होने वाले 'अक्' प्रत्यय तथा भविष्यत् और आधमर्ण्य (कर्जदार) अर्थ में होने वाले 'इनि' प्रत्ययों के योग में षष्ठी विभक्ति न होती। यहाँ 'अक्' प्रत्यय से अभिप्राय मूलभूत प्रत्यय 'ण्वुल्' से है।
उदाहरण - सत: पालक: अवतरति (सज्जनों का पालक अवतार लेता है) में 'पालक:' शब्द 'ण्वुल्' (अक) प्रत्ययान्त शब्द है जो 'कृत् संज्ञक' है अतः यहाँ 'कर्तृकर्मणोः कृति। इस सूत्र से षष्ठी विभक्ति प्राप्त हुई जिसका प्रकृत सूत्र से निषेध होकर कर्म (सत्) में द्वितीया विभक्ति हुई है। इसी प्रकार 'ब्रजंगामी' (ब्रज को जाने वाला) तथा शतं दायी (सौ रुपये का देनदार) में भविष्यत् अर्थ में णिनि प्रत्ययान्त शब्दों का प्रयोग हुआ है। जिसके योग में षष्ठी का निषेध होकर कर्म मे द्वितीया विभक्ति हुई है।
३१. कृत्यानां कर्तरि वा।
षष्ठी वा स्यात्। मया मम वा सेव्योः हरिः। कर्तरि इति किम्? गेयो माणवकः साम्नाम् 'अव्यगेय' इति कर्त्तरि यद्विधानादनभिहितं कर्म। अत्र योगो विभज्यन्ते कृत्यानाम्। उभयप्राप्तौ इति 'न' इति चानुवर्तते। तेन नेतव्या ब्रजं गावः कृष्णेन। ततः कर्तरि वा। उक्तोऽर्थः।
अर्थ - कृत्य प्रत्ययान्त शब्दों के प्रयोग में कर्त्ता अर्थ में विकल्प से षष्ठी विभक्ति होती है। यहाँ 'कर्तृकर्मणोः कृतिः' सूत्र से कर्त्ता में नित्य षष्ठी प्राप्त थी। अब वह विकल्प से होगी।
उदाहरण - मम मया वा सेव्यः हरिः (मेरे द्वारा हरि की सेवा करनी चाहिए) में कृत्य प्रत्ययान्त 'सेव्य:' शब्द से योग में कर्ता 'अस्मद्' में षष्ठी विभक्ति हुई है तथा पक्ष में तृतीया विभक्ति थी।
इस सूत्र में कर्त्तरि शब्द क्यों पड़ा है? इसके समाधान में कहा गया है कि ' कृत्य' प्रत्ययान्त शब्दों के योग में कर्त्ता में ही विकल्प से षष्ठी विभक्ति होती है। गेयो माणवकः साम्नाम् (बालक सामवेद का गान कर रहा है) में यत् प्रत्ययान्त 'गेय:' शब्द के योग में 'सामन्' शब्द के कर्म होने से 'कर्तृकर्मणोः कृति' से नित्य षष्ठी विभक्ति हुई है।
३२. तुल्यार्थैरतुलोपमाभ्यां तृतीयान्यतरस्याम्।
तुल्यार्थैयोगे तृतीया वा स्यात्पक्षे षष्ठी। तुल्यः सदृशः समो वा कृष्णस्य कृष्णेव वा। अतुलोपमाभ्यां किम्? तुला उपमा वा कृष्णस्य नास्ति।
अर्थ - तुला और उपमा शब्दों को छोड़कर तुल्य के पर्यायवाची शब्दों के योग में विकल्प से तृतीया विभक्ति होती है पक्ष में षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण - तुल्यः सदृशः समः वा कृष्णेन कृष्णस्य वा (कृष्ण के समान) में तुल्यार्थक शब्दों के योग में 'कृष्ण' शब्द में तृतीया एवं षष्ठी विभक्ति हुई है।
३३. चतुर्थी चाशिष्यायुष्यभद्र भद्रंकुशलसुरवार्थहितैः।
एतदर्थेयोगे चतुर्थी वा स्यात्पक्षे षष्ठी। आशिषि- आयुष्य चिरञ्जीवितं कृष्णय कृष्णस्य व भूपात्। एवं मद्रं भद्रं कुशलं निरामयं सुखं शम् अर्थः प्रयोजनं हितं पण्यं वा भूयात्। आशिषि किम्? देवदत्तस्यायुष्यमस्ति। व्याख्यानात्सर्वत्रार्थग्रहणम्। भद्रभद्रयोः पर्यायत्वादन्यतरो न पठनीयः।
अर्थ - 'आशीर्वचन' अर्थ गम्यमान होने पर आयुष्य, मद्र, भद्र, कुशल, सुत्य, अर्थ, हित इन शब्दों तथा इनके समानार्थकों के योग में विकल्प से चतुर्थी विभक्ति होती है पक्ष में षष्ठी भी।
उदाहरण - आयुष्यं चिरजीवितं कृष्णाय कृष्णस्य वा भूयात् (कृष्ण आयुष्मान् या चिरंजीवी हो) में आशीर्वाद अर्थ में आयुष्य और 'चिरज्जीवितम्' शब्दों का ग्रहण होने से इनके योग में कृष्ण शब्द में विकल्प से चतुर्थी विभक्ति हुई है। पक्ष में षष्ठी शेषे सूत्र से षष्ठी विभक्ति भी हुई है।
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- प्रश्न- निम्नलिखित क्रियापदों की सूत्र निर्देशपूर्वक सिद्धिकीजिये।
- १. भू धातु
- २. पा धातु - (पीना) परस्मैपद
- ३. गम् (जाना) परस्मैपद
- ४. कृ
- (ख) सूत्रों की उदाहरण सहित व्याख्या (भ्वादिगणः)
- प्रश्न- निम्नलिखित की रूपसिद्धि प्रक्रिया कीजिये।
- प्रश्न- निम्नलिखित प्रयोगों की सूत्रानुसार प्रत्यय सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित नियम निर्देश पूर्वक तद्धित प्रत्यय लिखिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित का सूत्र निर्देश पूर्वक प्रत्यय लिखिए।
- प्रश्न- भिवदेलिमाः सूत्रनिर्देशपूर्वक सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- स्तुत्यः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
- प्रश्न- साहदेवः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
- कर्त्ता कारक : प्रथमा विभक्ति - सूत्र व्याख्या एवं सिद्धि
- कर्म कारक : द्वितीया विभक्ति
- करणः कारकः तृतीया विभक्ति
- सम्प्रदान कारकः चतुर्थी विभक्तिः
- अपादानकारकः पञ्चमी विभक्ति
- सम्बन्धकारकः षष्ठी विभक्ति
- अधिकरणकारक : सप्तमी विभक्ति
- प्रश्न- समास शब्द का अर्थ एवं इनके भेद बताइए।
- प्रश्न- अथ समास और अव्ययीभाव समास की सिद्धि कीजिए।
- प्रश्न- द्वितीया विभक्ति (कर्म कारक) पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- द्वन्द्व समास की रूपसिद्धि कीजिए।
- प्रश्न- अधिकरण कारक कितने प्रकार का होता है?
- प्रश्न- बहुव्रीहि समास की रूपसिद्धि कीजिए।
- प्रश्न- "अनेक मन्य पदार्थे" सूत्र की व्याख्या उदाहरण सहित कीजिए।
- प्रश्न- तत्पुरुष समास की रूपसिद्धि कीजिए।
- प्रश्न- केवल समास किसे कहते हैं?
- प्रश्न- अव्ययीभाव समास का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- तत्पुरुष समास की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- कर्मधारय समास लक्षण-उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- द्विगु समास किसे कहते हैं?
- प्रश्न- अव्ययीभाव समास किसे कहते हैं?
- प्रश्न- द्वन्द्व समास किसे कहते हैं?
- प्रश्न- समास में समस्त पद किसे कहते हैं?
- प्रश्न- प्रथमा निर्दिष्टं समास उपर्सजनम् सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- तत्पुरुष समास के कितने भेद हैं?
- प्रश्न- अव्ययी भाव समास कितने अर्थों में होता है?
- प्रश्न- समुच्चय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- 'अन्वाचय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित समझाइये।
- प्रश्न- इतरेतर द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- समाहार द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरणपूर्वक समझाइये |
- प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
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